दहेज में कुत्ता एवं गधा देने की बात कही जाए तो शायद हर कोई इसे मजाक समझेगा। लेकिन यह हकीकत है। इतना ही नहीं, दो साल तक संभावित औरत को मांगकर...
दहेज में कुत्ता एवं गधा देने की बात कही जाए तो शायद हर कोई इसे मजाक समझेगा। लेकिन यह हकीकत है। इतना ही नहीं, दो साल तक संभावित औरत को मांगकर खिलाने की शर्त पूरी करने के बाद गर्भावस्था में सियार का मांस ही उनकी खुशहाल जिन्दगी आधार बनता है। यह अलग बात है कि यह परंपरा महज जोगी जाति के कुछ परिवारों तक ही सिमट गई है।
पश्चिमी राजस्थान में घुमक्कड़ एवं भीख मांगकर गुजारा चलाने वाली जोगी जाति के परिवारों के लिए ऐसी परंपराएं आम बात रही है। भले ही इन पर दूसरे लोग विश्वास करें या नहीं। प्रतापनाथ को आज भी अपनी शादी का वो दिन याद है जब उसे दहेज में कुत्त्ते के साथ गधा मिला था। कुत्ता उसे अस्थाई ठिकाने के रखवाली एवं शिकार में मदद के लिए और गधा इसलिए कि वो आसानी से अपना बोरियां-बिस्तर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा सके। यह बात भी महज दस पुरानी है जब उसने शादी के लिए अपनी औरत रूपो को दो साल तक कमाकर खिलाया था। उसके बाद रूपो की रजामंदी से ही तो उसकी शादी हुई थी।
हालांकि उसे अभी भी मलाल है कि वह अपनी औरत को गर्भावस्था के दौरान सियार का मांस नहीं खिला पाया। हालांकि उसने कोशिश तो की थी परंतु सियार उसकी पकड़ में नहीं आया था। प्रतापनाथ के शब्दों में वो रिवाज अब लगभग खत्म होने को है। शादी की बात हो या अन्य कोई काम इनके अपने रिवाज है। आजादी के 55 साल बाद भी न तो इनके पास जमीन है और न हीं रहने के आशियाने। खुले आसमान में जीवन यापन करने की मजबूरी के साथ ये कई ऐसे दर्द छुपाएं हुए है, जिन्हें वो बताकर अपना दर्द बढ़ाना भी नहीं चाहते। अब तक मांगकर गुजारा करने वाले इन लोगों को अब भीख भी नहीं मिलती। ऐसे में वे परंपरागत काम छोड़कर अन्य काम अपना रहे है। बावजूद इसके इसमें कई दिक्कतें पेश आ रही है। रही सरकारी मदद की बात, वो मिले भी कैसे? कईयों के नाम तो राशनकार्ड में भी दर्ज नहीं है।
कानाता में डेरा डाले एक बुजुर्ग कानाराम बताते है कि राशनकार्ड ऐसे कुछ जोगियों के बनाए गए है जिन्होंने समय-समय पर पटवारियों एवं सरपंचों वगैरह की बेगार निकाली है। इन लोगों को रोजगार एवं जमीन वगैरह की जरूरत तो है। इससे भी अधिक चिन्ता उन्हें इस बात की है कि जिस परंपरा रूपी विरासत को संभाले हुए है, वो खत्म होती जा रही है।
बाड़मेर शहर से दो किमी दूर डेरा डाले कुछ जोगियों ने पेट पालने के लिए पत्थर तोड़ने का काम शुरू कर दिया है। केर के पिछवाड़े में रहने वाले इन लोगों ने यहां बूई एवं बबूल की झाड़ियों से बाड़े बनाए है। जिनकी हालत जानवरों के बाड़े से भी बदत्तर है। वहीं कुछ तो ही खुले आसमान के तले गुजारा कर रहे है। इन्हीं बाड़ों में उनकी दुनिया समाई है इसमें कुत्ते, मुर्गे एवं गधे भी शामिल है।
बहरहाल जोगी समाज शुरूआत से चली आ रही अपने रिवाजों को जिन्दा रखने की कोशिश तो कर रहा है, फिर भी यह कोशिश कितनी कारगर साबित हो पाएगी यह आने वाला वक्त ही बता पाएगा।
अभी तक बेआसरे जिन्दगी : इन परिवारों में अधिकांश परिवारों की जिन्दगी अभी भी घुमक्कड़ हैं, ये लोग किस्मत के भरोसे जीवन की गाड़ी को हांकने पर मजबूर हैं। राज्य सरकार हो या केंद्र की सत्तासीन सरकार, किसी के द्वारा अब तक इस घुमक्कड़ जाति को शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और आम जनजीवन से जोड़ने की कोशिश इमानदारी से नहीं की गई। इसकी वजह से ही बाड़मेर समेत पूरे राज्य में जोगी बिरादरी के लोग सरकार की उदासीन नीतियों की वजह से आज भी सभी मूलभूत सुविधाओं से महरूम हैं।
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